मुरादाबाद: शिक्षा ग्रहण करने की न तो कोई उम्र होती है और न कोई समय।
जब आप चाहें शिक्षा ग्रहण करने का पुनीत कार्य प्रारंभ कर सकते हैं।
सैद्धांतिक तौर पर तो शिक्षा को ग्रहण करने की मानसिक समझ और सुविधा के
अनुसार हम तीन चरणों में वर्गीकृत कर सकते हैं।
प्रथम है प्राथमिक शिक्षा, फिर माध्यमिक शिक्षा और अंत में उच्च शिक्षा। प्रत्येक स्तर की शिक्षा का अपना महत्व है। जब से भारत आजाद हुआ है तब से पढ़ने की अनिवार्यता की जब भी बात होती है तो चाहे सरकारी मशीनरी हो या गैर सरकारी संगठन, सभी का जोर प्राथमिक शिक्षा की ओर अधिक होता है। क्योंकि अक्षर ज्ञान और अपना हस्ताक्षर कर लेने वाले को ही साक्षरता की श्रेणी में रखा जाता है, जोकि सरकार का परम लक्ष्य है। इसी कारण आजादी के बाद से ही सरकारों का पूरा ध्यान प्राथमिक शिक्षा एवं उसके बाद माध्यमिक शिक्षा की ओर रहा है। इन परिस्थितियों में उच्च शिक्षा की ओर सरकारों का ध्यान कम रहा। यूजीसी का ये मानना है कि देश के सभी नगर निगम अथवा मंडल मुख्यालयों में तो विश्वविद्यालय की स्थापना अनिवार्य रूप से हो, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की भेदपूर्ण नीतियों के कारण किसी शहर में तीन-तीन विश्वविद्यालय मौजूद हैं तो किसी में एक भी नहीं है। मुरादाबाद मंडल इसका ज्वलंत उदाहरण है। उप्र की बात करें तो कुल 12 राज्य विश्वविद्यालय एवं चार केंद्रीय विश्वविद्यालयों के सापेक्ष लगभग पांच हजार राजकीय, सहायता प्राप्त, स्ववित्तपोषित कालेज संबद्ध हैं। चार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में मात्र दस से 12 महाविद्यालय संबद्ध होंगे। अर्थात ज्यादातर कालेज राज्य विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। ऐसे विश्वविद्यालयों का सारा ध्यान लाखों विद्यार्थियों की परीक्षा और उनके परिणाम घोषित करने में ही चला जाता है। पढ़ाई के अलावा शोध की स्थिति और भी दयनीय है। उच्च शिक्षा में शिक्षकों के 50 फीसद पद रिक्त हैं। विद्यार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि शिक्षकों की संख्या में गिरावट आयी है। नयी भर्तियां रुकी हुई हैं। ऐसे में उच्च शिक्षण संस्थान डिग्री बांटने के संस्थान रह गए हैं। पिछले कुछ वर्षो में इंटरमीडिएट की परीक्षा में उत्तीर्ण विद्यार्थियों के फीसद में 20 से 25 फीसद का उछाल आया है। ज्यादातर विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं। आंकलन किया जाए तो समूची उच्च शिक्षा आज पटरी से उतर कर घिसट-घिसट कर चल रही है। समय रहते सरकार नहीं चेती तो उच्च शिक्षण संस्थान शिक्षक विहीन हो जाएंगे।
-डॉ. एके अग्रवाल, प्राचार्य, ¨हदू कालेज।
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प्रथम है प्राथमिक शिक्षा, फिर माध्यमिक शिक्षा और अंत में उच्च शिक्षा। प्रत्येक स्तर की शिक्षा का अपना महत्व है। जब से भारत आजाद हुआ है तब से पढ़ने की अनिवार्यता की जब भी बात होती है तो चाहे सरकारी मशीनरी हो या गैर सरकारी संगठन, सभी का जोर प्राथमिक शिक्षा की ओर अधिक होता है। क्योंकि अक्षर ज्ञान और अपना हस्ताक्षर कर लेने वाले को ही साक्षरता की श्रेणी में रखा जाता है, जोकि सरकार का परम लक्ष्य है। इसी कारण आजादी के बाद से ही सरकारों का पूरा ध्यान प्राथमिक शिक्षा एवं उसके बाद माध्यमिक शिक्षा की ओर रहा है। इन परिस्थितियों में उच्च शिक्षा की ओर सरकारों का ध्यान कम रहा। यूजीसी का ये मानना है कि देश के सभी नगर निगम अथवा मंडल मुख्यालयों में तो विश्वविद्यालय की स्थापना अनिवार्य रूप से हो, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की भेदपूर्ण नीतियों के कारण किसी शहर में तीन-तीन विश्वविद्यालय मौजूद हैं तो किसी में एक भी नहीं है। मुरादाबाद मंडल इसका ज्वलंत उदाहरण है। उप्र की बात करें तो कुल 12 राज्य विश्वविद्यालय एवं चार केंद्रीय विश्वविद्यालयों के सापेक्ष लगभग पांच हजार राजकीय, सहायता प्राप्त, स्ववित्तपोषित कालेज संबद्ध हैं। चार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में मात्र दस से 12 महाविद्यालय संबद्ध होंगे। अर्थात ज्यादातर कालेज राज्य विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। ऐसे विश्वविद्यालयों का सारा ध्यान लाखों विद्यार्थियों की परीक्षा और उनके परिणाम घोषित करने में ही चला जाता है। पढ़ाई के अलावा शोध की स्थिति और भी दयनीय है। उच्च शिक्षा में शिक्षकों के 50 फीसद पद रिक्त हैं। विद्यार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि शिक्षकों की संख्या में गिरावट आयी है। नयी भर्तियां रुकी हुई हैं। ऐसे में उच्च शिक्षण संस्थान डिग्री बांटने के संस्थान रह गए हैं। पिछले कुछ वर्षो में इंटरमीडिएट की परीक्षा में उत्तीर्ण विद्यार्थियों के फीसद में 20 से 25 फीसद का उछाल आया है। ज्यादातर विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं। आंकलन किया जाए तो समूची उच्च शिक्षा आज पटरी से उतर कर घिसट-घिसट कर चल रही है। समय रहते सरकार नहीं चेती तो उच्च शिक्षण संस्थान शिक्षक विहीन हो जाएंगे।
-डॉ. एके अग्रवाल, प्राचार्य, ¨हदू कालेज।
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