हरिशंकर मिश्र, इलाहाबाद1प्रदेश सरकार ने उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग और
माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड में अध्यक्ष व सदस्यों के रिक्त पदों पर
तलाश शुरू कर दी है लेकिन वह नियम अभी तक बरकरार है जिसकी आड़ में
नियुक्तियों की रेवड़ी बांटी गई थी।
इस नियम में स्पष्ट है कि राज्य सरकार की राय में ऐसा व्यक्ति जिसने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया हो, उसे भी नियुक्त किया जा सकता है। आयोग और चयन बोर्ड में विवादित लोगों की नियुक्ति की राह इस नियम से ही निकली थी।
सरकार को उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में अध्यक्ष के अलावा पांच सदस्यों और माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड में अध्यक्ष व चार सदस्यों की नियुक्ति करनी है। ऐसा पहली बार हुआ है कि सदस्यों के इतने पद एक साथ रिक्त हैं। इनमें अधिकांश पद नियुक्ति अवैध होने की वजह से ही खाली हुए हैं। आयोग और चयन बोर्ड से जुड़े लोगों के अनुसार पहले अध्यक्ष की नियुक्ति में योग्यता का खास ध्यान रखा जाता था। इसी वजह से चयन बोर्ड में बीएचयू के सीनियर प्रोफेसर डीपी सिंह, जाने माने शिक्षाविद फजले इमाम जैसे लोगों की नियुक्ति हुई। सदस्यों में न्यायिक सेवा से रिटायर लोगों को भी वरीयता दी जाती रही लेकिन बाद में यह स्तर गिरता गया।
आयोग और चयन बोर्ड की नियुक्तियों में मनमानी की शुरुआत बसपा शासन में 2007 में हुई जबकि अध्यक्ष और सदस्यों की योग्यता में संशोधन करके यह जोड़ा गया कि सरकार की राय में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने वाले की भी दावेदारी हो सकती है। यानी ‘सरकार की राय’ भी अहम हो गई। इसके बाद ही आयोग और चयन बोर्ड का स्तर गिरता गया। चयन बोर्ड में तो लगातार विवाद सामने आते रहे। आरपी वर्मा के कार्यकाल में तो सदस्यों में मारपीट तक हुई। उसके बाद आशाराम के समय में अधिकारियों से युद्ध छिड़ा रहा। उच्च शिक्षा में सदस्यों में आपसी विवाद तो नहीं मुखर हुआ लेकिन नियुक्तियां भी नहीं की जा सकीं। यहां तक कि दो विज्ञापन तक रद करने पड़े। वैसे इस संशोधन के पहले भी सरकार अध्यक्ष व सदस्यों के चयन में अपने ही मन की करती रही है। मुलायम शासनकाल में डा. अजब सिंह की चयन बोर्ड में अध्यक्ष पद पर नियुक्ति पूरी प्रक्रिया अपनाकर की गई थी लेकिन यह आरोप लगते रहे कि उन्हें पद पर बैठाने के लिए बहुतों को दरकिनार किया गया। अजब सिंह के कार्यकाल काफी सफल माना गया और बड़ी संख्या में नियुक्तियां हुई थीं। माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड में सदस्य रह चुके डा. सतीश दुबे कहते हैं कि नियुक्तियों में योग्यता को तरजीह दिया जाना जरूरी है। चयन ऐसे लोगों का किया जाना चाहिए जो पारदर्शिता के साथ पदों को भर सकें और भर्ती प्रक्रिया निरंतर बनाए रख सकें।
इस नियम में स्पष्ट है कि राज्य सरकार की राय में ऐसा व्यक्ति जिसने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया हो, उसे भी नियुक्त किया जा सकता है। आयोग और चयन बोर्ड में विवादित लोगों की नियुक्ति की राह इस नियम से ही निकली थी।
सरकार को उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में अध्यक्ष के अलावा पांच सदस्यों और माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड में अध्यक्ष व चार सदस्यों की नियुक्ति करनी है। ऐसा पहली बार हुआ है कि सदस्यों के इतने पद एक साथ रिक्त हैं। इनमें अधिकांश पद नियुक्ति अवैध होने की वजह से ही खाली हुए हैं। आयोग और चयन बोर्ड से जुड़े लोगों के अनुसार पहले अध्यक्ष की नियुक्ति में योग्यता का खास ध्यान रखा जाता था। इसी वजह से चयन बोर्ड में बीएचयू के सीनियर प्रोफेसर डीपी सिंह, जाने माने शिक्षाविद फजले इमाम जैसे लोगों की नियुक्ति हुई। सदस्यों में न्यायिक सेवा से रिटायर लोगों को भी वरीयता दी जाती रही लेकिन बाद में यह स्तर गिरता गया।
आयोग और चयन बोर्ड की नियुक्तियों में मनमानी की शुरुआत बसपा शासन में 2007 में हुई जबकि अध्यक्ष और सदस्यों की योग्यता में संशोधन करके यह जोड़ा गया कि सरकार की राय में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने वाले की भी दावेदारी हो सकती है। यानी ‘सरकार की राय’ भी अहम हो गई। इसके बाद ही आयोग और चयन बोर्ड का स्तर गिरता गया। चयन बोर्ड में तो लगातार विवाद सामने आते रहे। आरपी वर्मा के कार्यकाल में तो सदस्यों में मारपीट तक हुई। उसके बाद आशाराम के समय में अधिकारियों से युद्ध छिड़ा रहा। उच्च शिक्षा में सदस्यों में आपसी विवाद तो नहीं मुखर हुआ लेकिन नियुक्तियां भी नहीं की जा सकीं। यहां तक कि दो विज्ञापन तक रद करने पड़े। वैसे इस संशोधन के पहले भी सरकार अध्यक्ष व सदस्यों के चयन में अपने ही मन की करती रही है। मुलायम शासनकाल में डा. अजब सिंह की चयन बोर्ड में अध्यक्ष पद पर नियुक्ति पूरी प्रक्रिया अपनाकर की गई थी लेकिन यह आरोप लगते रहे कि उन्हें पद पर बैठाने के लिए बहुतों को दरकिनार किया गया। अजब सिंह के कार्यकाल काफी सफल माना गया और बड़ी संख्या में नियुक्तियां हुई थीं। माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड में सदस्य रह चुके डा. सतीश दुबे कहते हैं कि नियुक्तियों में योग्यता को तरजीह दिया जाना जरूरी है। चयन ऐसे लोगों का किया जाना चाहिए जो पारदर्शिता के साथ पदों को भर सकें और भर्ती प्रक्रिया निरंतर बनाए रख सकें।